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ग्लोबल वार्मिंग क्या है और इसे कैसे ठीक करे?

ग्लोबल वार्मिंग

ग्लोबल वार्मिंग आज हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है। मानवता और पूरी धरती के अस्तित्व का यह दुश्मन भले ही अदृश्य हो, लेकिन इसके प्रतिकूल असर को स्पष्ट देखा जा सकता है। हालांकि कुछ लोग सब कुछ देते हुए भी ना देखने का अभिनय कर रहे हैं। धरती गर्म हो रही है। मौसम चक्र गड़बड़ा गया है। जिसका नतीजा बड़ी तबाही के रूप में सामने आ रहा है। उत्तराखंड में पिछले 36 वर्षों की सबसे अधिक बारिश हो जाती है। ऐसी कुछ स्थिति केरल में भी होती है। सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया का कोई कोना नहीं है जहां मौसम किए बेतरतीबी भी दिख न रही हो। दरअसल ये सब इंसानी लालच का प्रतिकूल है। विकास की भूख हमारी इतनी बढ़ गई है कि हम जरूरत और लालसा कभी भुला बैठे। धरती के संसाधनों का हमने जमकर दोहन किया। वायुमंडल में इतना उत्सर्जन किया कि ग्लोबल वार्मिंग की हालत पैदा हो गई है। जलवायु में परिवर्तन शुरू हुआ तो कोई मानने को तैयार नहीं तभी आईपीसीसी की एक रिपोर्ट में सच्चाई बताई।

आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज)

के लिए आईपीसीसी शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में हो रहे शोध पर नजर रखता है।

ग्लोबल वार्मिंग को कैसे रोका जाए।

इसे कैसे रोका जाए, इस पर अंतरराष्ट्रीय विमर्श शुरू हुआ। मंच सजने लगे। उत्सर्जन कटौती को लेकर देशों के बीच कई संध्या हुई, लेकिन मामला तार्किक अंजाम तक नहीं पहुंच पाया। विकासशील और गरीब देशों का मानना है की विकसित देशों ने विकास के नाम पर 200 साल तक पर्यावरण की मनमानी बर्बादी की। अब जब विकास हमारी जरूरत है तो हमको उत्सर्जन का पाठ पढ़ाया जा रहा है। इस गतिरोध को दूर करने के लिए पेरिस जलवायु संधि में रास्ता निकाला गया कि सभी देश स्वैच्छिक रूप से उत्सर्जन में कटौती की घोषणा करेंगे। अमीर देश गरीब देशों के विकास के लिए हरित तकनीक और आर्थिक रूप से मदद करेंगे। यह फैसला भी किसी कारगर अंजाम तक पहुंचता नहीं दिख रहा है। लिहाजा अब एक और यूएन क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस का आयोजन ब्रिटेन के ग्लासगो में तय है। 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक चलने वाले इस जलवायु महाकुंभ में पेरिस समझौते के अधूरे प्रावधानों को तार्किक अंजाम तक पहुंचाने की बात होगी। दुनिया में कैसे जी वास में इन दिनों की जगह हरित और स्वच्छ इंधन लाया जाए, जैसे मामलों पर निर्णय लिया जाएगा। हालाकि यह सम्मेलन शुरू होने से पहले ही विवादों से घिर चुका है। लेकिन मानवता के लिए भगवान दुनिया के नीति पढ़ने वालों को सद्बुद्धि दे की धरती को बचाने के लिए वह सब एकजुट हो और सर्वसम्मति से एक राय बनाएं।
पेरिस समझौता
दिसंबर 2015 में पेरिस में पहली बार ग्लोबल वार्मिंग से निपटने और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने को लेकर दुनिया भर के देशों में सहमति बनी थी। जो शायद दुनिया में अब तक नही दिखी हैं।

गर्म होती धरती की कहानी
संस्कृत की एक सकती है "अति सर्वत्र वर्जयेत" यानी अति से हमेशा बचना चाहिए। जब बात जलवायु परिवर्तन और गर्म होते धरती की हो तो यह बात और भी प्रासंगिक हो जाती है। ब्रह्मांड के अनेकानेक ग्रहों में धरती पर ही जीवन होने में बहुत बड़ा योगदान ग्रीन हाउस गैसों का है। कार्बन डाइऑक्साइड और नितिन जैसी ग्रीन हाउस गैसों के कारण ही सूर्यास्त के बाद भी सूर्य के प्रकाश की गर्मी वातावरण में बनी रहती है। ग्रीन हाउस गैसों का अस्तित्व ना हो तो सूरज के छिपने के कुछ ही देर में यहां का तापमान शून्य से बहुत नीचे चला जाएगा, जो जीवन के अनुकूल नहीं होगा। इसी कारण संतुलन हो तभी आ धरती चल पाती है। प्रकृति में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और अवशोषण की संतुलित व्यवस्था की है जीवधारी कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं घुमा दो पेड़ पौधे उसी कार्बन डाइऑक्साइड से भोजन और ऑक्सीजन बना देते हैं।
ग्रीन हाउस गैसों का रेड सिग्नल 
मनुष्य की लापरवाही से अब ग्रीनहाउस वैसे ही जानलेवा हो रही है। दरअसल 19वीं सदी में जैसे-जैसे मनुष्य ने औद्योगिक विकास की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया वैसे वैसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा। औद्योगिक विकास में कोयला और पेट्रोल जैसे जीवाश्म इंधन ओके जलने से बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का स्तर बढ़ने लगा और इसके प्रभाव से धरती के तापमान में भी वृद्धि होने लगी। 19वीं सदी के आखिर में जब से औसत वैश्विक तापमान मापने की शुरुआत हुई, तब से धरती का तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है।

ऐसे पड़ रहा है असर ग्लोबल वार्मिंग का

1. अप्रत्याशित तापमान

जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव तापमान पर दिख रहा है। वैश्विक स्तर पर औसतन तापमान बढ़ने के साथ-साथ तापमान की अप्रत्याशित स्थितियां भी दिख रही है। 1895 मे तापमान का रिकॉर्ड रखा जाना शुरू हुआ था। तब से अब तक 2020 सबसे गर्म वर्ष रहा है। पिछले 108 साल में 10 सबसे गर्म वर्ष 2001 के बाद से ही है।

2. मौसम में बदलाव

मौसम में अचानक बदलाव भी जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम माना जा रहा है। बहुत तेज बारिश, बाढ़, सुखा, चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। विज्ञानियों का मानना है की उसकी वजह स्थानीय परिस्थितियों से कई गुना अधिक ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार है।


3. जिवो और पेड़ों पर ऊपर खतरा

बदलता तापमान और अप्रत्याशित मौसम कई जियो और पेड़ों की प्रजातियों के लिए भी संकट है। 2013 में नेचर क्लाइमेट चेंज जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यदि अभी हम नहीं संभले तो वर्ष 2080 तक ग्लोबल वार्मिंग पौधों की आधी और जीवो की तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने का कारण बनेगी।

4. समुद्र का बढ़ता जलस्तर

ग्लोबल वार्मिंग से बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। 20 वीं सदी में समुद्र का जलस्तर आस्थान 1.6 एमएम सालाना बड़ा था। अब यह औषध 3मिलीमीटर हो गया है। आर्कटिक और अंटार्कटिक में बर्फ पिघल रही है, ग्लेशियर घट रहे हैं। इससे बहुत से तटीय इलाकों के डूबने का खतरा बढ़ गया है। इसके अलावा समुद्रों में अवशोषित हो रही कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ने से पानी अम्लीय हो रहा है।

5. सामाजिक प्रभाव

जलवायु परिवर्तन कई तरह के सामाजिक दुष्प्रभाव का भी कारण बन रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण खेती प्रभावित हो रही है, जिससे कई क्षेत्रों में खाद्यान्न संकट की स्थिति बनने का खतरा है। गरीब देश के संकट का सबसे ज्यादा सामना कर रहे हैं।

तेजी से गर्म हुई धरती, ठंडे पड़े रहे निपटने के दुनिया के कदम

जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरों का अनुमान 10 को पहले से लगने लगा था। लेकिन इससे निपटने को कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। लिहाजा आज बीसवीं सदी के औसत की तुलना में वैश्विक तापमान 1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया। नीचे आपको कुछ ग्राफ दिखाई दे रहे हैं जिससे आपको पता चल जाएगा।

इस मीटिंग का पड़ेगा आम लोगों पर यह असर

सम्मेलन में बनी सहमति तय होगा कि आने वाले वर्षों में आप पेट्रोल डीजल की कार चला पाएंगे या नहीं। घर में गैस गीजर के इस्तेमाल से लेकर हर छोटे-बड़े सफर के लिए हवाई में जहाज में चलने जैसे कदमों पर भी प्रभाव पड़ सकता है। इस मीटिंग से छोटे और विकासशील देशों को एक आशा है कि अगले 5 साल वित्तीय सहायता मिले जिससे वह हरित प्रौद्योगिकी अपना सके। इनमें से किसी भी बात पर सहमति नहीं बनी तो डेढ़ डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य मुश्किल हो जाएगा। वैसे कई विशेषज्ञ दावा करते हैं कि बहुत देर हो चुकी है किसी भी हाल में तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोक पाना संभव नहीं होगा।
मगर इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता एक बार कोशिश करने की बस कमी है। इसके लिए सिर्फ सरकार कुछ नहीं कर सकती यह काम इस धरती पर रहने वाले हर इंसान को करना होगा तभी इस बात में थोड़ी बहुत बदलाव आ सकती है।

इसके लिए कुछ काम तो हम अपनी ओर से कर सकते हैं

*आपका कोई उत्पाद अगर बेकार हो गया हो तो दूसरा ना खरीदे उसी को रिपेयर करने की कोशिश करें.
* पेट्रोल डीजल से चलने वाले गाड़ियों का इस्तेमाल कम से कम करें हो सके तो साइकिल का उपयोग करें या पैदल चलें।
*छोटी दूरियों पर चलने के लिए तो कम से कम पैदल ही चले।
*मौसमी खाद्य पदार्थ का करे सेवन।
* ऊर्जा की बर्बादी कम करें।
*शाकाहारी भोजन को प्राथमिकता दें।
*लंबे समय तक चलने वाले सामानों का प्रयोग करें।
*प्लास्टिक जैसे उत्पादों का उपयोग कम से कम करें।
*घरों में सोलर पावर से बिजली उत्पन्न करने वाले सोलर प्लेट्स का उपयोग करने की कोशिश करें।
*नवीनीकरण ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करें।

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